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डीजे बंद…

! मेरी अभिव्यक्ति !
! मेरी अभिव्यक्ति !
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अभी पिछले दिनों की बात है, घर के पीछे स्थित एक धर्मशाला में विवाह समारोह था और जैसा कि आजकल का प्रचलन है वहां डी.जे. बज रहा था और शायद full volume में बज रहा था. जैसा कि डी.जे. का प्रभाव होता है वही हो रहा था, उथल-पुथल मचा रहा था, मानसिक शांति भंग कर रहा था. आश्चर्य की बात है कि हमारे कमरों के किवाड़ भी हिले जा रहे थे. हमारे कमरों के किवाड़ जो कि ऐसी दीवारों में लगे हैं, जो लगभग दो फुट मोटी हैं और जब हमारे घर की ये हालत थी, तो आजकल के डेढ़ ईंट के दीवार वाले घरों की हालत समझी जा सकती है.


बहुत मन किया कि जाकर डी.जे. बंद करा दूं, किन्तु किसी की ख़ुशी में भंग डालना न हमारी संस्कृति है न स्वभाव, इसलिए तब किसी तरह बर्दाश्त किया, किन्तु आगे से ऐसा न हो इसके लिए कानून में हमें मिले अधिकारों की तरफ ध्यान गया. भारतीय दंड संहिता का अध्याय १४ लोक स्वास्थ्य, क्षेम, सुविधा, शिष्टता और सदाचार पर प्रभाव डालने वाले अपराधों के विषय में है और इस तरह से शोर मचाकर जो असुविधा जन सामान्य के लिए उत्पन्न की जाती है, वह दंड संहिता के इसी अध्याय के अंतर्गत अपराध मानी जायेगी और लोक न्यूसेंस के अंतर्गत आएगी.


भारतीय दंड सहिंता की धारा २६८ कहती है- ”वह व्यक्ति लोक न्यूसेंस का दोषी है, जो कोई ऐसा कार्य करता है या किसी ऐसे अवैध लोप का दोषी है, जिससे लोक को या जन साधारण को, जो आसपास रहते हों या आसपास की संपत्ति पर अधिभोग रखते हों, कोई सामान्य क्षति, संकट या क्षोभ कारित हो या जिसमें उन व्यक्तियों का, जिन्हें किसी लोक अधिकार को उपयोग में लाने का मौका पड़े, क्षति, बाधा, संकट या क्षोभ कारित होना अवश्यम्भावी हो.”


कोई सामान्य न्यूसेंस इस आधार पर माफ़ी योग्य नहीं है कि उससे कुछ सुविधा या भलाई कारित होती है. इस प्रकार न्यूसेंस या उपताप से आशय ऐसे काम से हैं, जो किसी भी प्रकार की असुविधा, परेशानी, खतरा, क्षोभ [खीझ ] उत्पन्न करे या क्षति पहुंचाए. यह कोई काम करने या कोई कार्य न करने के द्वारा भी हो सकता है और धारा २९० भारतीय दंड संहिता में इसके लिए दंड भी दिया जा सकता है.


धारा २९० कहती है- ”जो कोई किसी ऐसे मामले में लोक न्यूसेंस करेगा, जो इस संहिता द्वारा अन्यथा दंडनीय नहीं है, वह जुर्माने से जो दो सौ रुपये तक का हो सकेगा दण्डित किया जायेगा.” और न केवल दाण्डिक कार्यवाही का विकल्प है, बल्कि इसके लिए सिविल कार्यवाही भी हो सकती है क्योंकि यह एक अपकृत्य है और यह पीड़ित पक्ष पर निर्भर है कि वह दाण्डिक कार्यवाही संस्थित करे या क्षतिपूर्ति के लिए सिविल दावा दायर करे. और चूँकि किसी विशिष्ट समय पर रेडियो, लाउडस्पीकर, डीजे आदि को लोक न्यूसेंस नहीं माना जा सकता, इसका मतलब यह नहीं कि इन्हें हमेशा ही इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता.


वर्तमान में अनेक राज्यों ने अपने पुलिस अधिनियमों में इन यंत्रों से शोर मचाने को एक दंडनीय अपराध माना है, क्योंकि यह लोक स्वास्थ्य को दुष्प्रभावित करता है तथा इससे जनसाधारण को क्षोभ या परेशानी उत्पन्न होती है. [बम्बई पुलिस अधिनियम १९५१ की धाराएं ३३, ३६ एवं ३८ तथा कलकत्ता पुलिस अधिनियम १८६६ की धारा ६२ क [ड़] आदि]


इसी तरह उ०प्र० पुलिस अधिनयम १८६१ की धारा ३० [४] में यह उल्लेख है कि वह त्यौहारों और समारोहों के अवसर पर मार्गों में कितना संगीत है, उसको भी विनियमित कर सकेगा. ”शंकर सिंह बनाम एम्परर ए.आई.आर. १९२९ all. २०१ के अनुसार त्यौहारों और समारोहों के अवसर पर पुलिस को यह सुनिश्चित करने का अधिकार है कि वह संगीत के आवाज़ की तीव्रता को सुनिश्चित करे. त्यौहारों और समारोहों के अवसर पर लोक मार्गों पर गाये गए गाने एवं संगीत की सीमा सुनिश्चित करना पुलिस का अधिकार है.” और यहाँ मार्ग से तात्पर्य सार्वजनिक मार्ग व स्थान से है, जहाँ जनता का जमाव विधिपूर्ण रूप में होता है और इसलिए ऐसे में पुलिस भी इस तरह के समारोहों में इन यंत्रों की ध्वनि तीव्रता का विनियमन कर सकती है.


साथ ही कानून द्वारा मिले हुए इस अधिकार के रहते ऐसे स्थानों की प्रबंध समिति का भी यह दायित्व बन जाता है कि वह जन सुविधा व स्वास्थ्य को देखते हुए ध्वनि तीव्रता के सम्बन्ध में नियम बनाये अन्यथा वह भी भारतीय दंड सहिंता के अंतर्गत दंड के भागी हो सकते हैं, क्योंकि वे प्रबंधक की हैसियत से प्रतिनिधायी दायित्व के अधीन आते हैं.

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