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जनता सोना छाेड़ो

! मेरी अभिव्यक्ति !
! मेरी अभिव्यक्ति !
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crowd


दिल्ली के गांधीनगर में पांच वर्षीय गुड़िया के साथ हुए दुष्कर्म ने वहां की जनता को झकझोरा था और जनता जुट गयी फिर से प्रदर्शनों की होड़ में. आरोप था कि पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की, २००० रुपए दे चुप बैठने को कहा. जनता लगी पुलिस पर हमला करने, परिणाम एक और लड़की दुर्घटना की शिकार, आरोप एसीपी ने लड़की के ऐसा चांटा मारा कि उसके कान से खून बहने लगा.


बुरी लगती है सरकार की प्रशासनिक विफलता. घाव करती है पुलिस की निर्दयता, किन्तु क्या हर घटना का जिम्मेदार सरकार को, पुलिस को और कानून को ठहराना उचित है? क्या हम ऐसे अपराधों के घटित होने में अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं देखते?


१५ फरवरी सन १९९७ को कांधला जिला मुजफ्फरनगर में एक दुकान में डाॅक्टरी कर रहे एक डाॅक्टर का सामान दुकान मालिक द्वारा नहर में डाल दिया गया. सुबह जब वह अपने क्लिनिक में पहुंचा, तो वहां कोई सामान न देख वह मामला समझ मार-पीट पर उतारू हो गया. दोनों तरफ से लोग जुटे और जुट गयी एक भीड़, जो तमाशबीन कही जाती है.


वे डाॅक्टर को कुल्हाड़ी से, लाठी से पीटते-मारते रहे और जनता ये सब होते देखती रही. क्यों नहीं रोका किसी ने वह अपराध घटित होने से? जबकि भीड़ अगर हस्तक्षेप करती, तो एक निर्दोष की जान बच सकती थी और एक बाप व उसके दो बेटे अपराधी बनने से बच सकते थे.


२ अप्रैल २०१३, परीक्षा ड्यूटी से वापस लौटती चार शिक्षिका बहनों पर तेजाबी हमला किया गया. एक बहन ने एक आरोपी को पकड़ा भी, किन्तु वह अकेली उसे रोक नहीं सकती थी. वह छूटकर फरार हो गया और वे बहने खुद ही रिक्शा कर अस्पताल गयी, जबकि यह वह समय था जब परीक्षा छूटने के कारण सड़क पर अच्छी खासी भीड़-भाड़ थी. क्यों नहीं मदद की किसी ने उन बहनों की? जबकि अगर जनता आगे आती, तो आरोपी इतनी भीड़ में से भाग नहीं सकते थे. जनता उन्हें वहीं पकड़कर पीट-पीटकर अधमरा कर पुलिस के हवाले कर सकती थी.


क्यों हम हर अपराध का दोष सरकार, पुलिस व कानून पर थोपने लगते हैं? हम ही तो हैं, जो हर जगह हैं, हर अपराध होते देखते हैं और अनदेखा करते हैं. हम ही तो हैं जो एक चोर के पकडे़ जाने पर उसे पीटने पर तुल जाते हैं, फिर क्यों बसों में, सड़को पर हुई छेड़खानी पर चुप रहते हैं? क्यों नहीं तोड़ते अपराधियों के हौसले? जबकि हम जनता हैं, हम सब कर सकते हैं.


जनता जब अपनी पर आ जाये, तो देश आज़ाद कराती है. जनता जब अपनी ताकत आजमाए, तो कठोर कानून पारित कराती है. जनता में वह ताकत है जो बड़े से बड़े निज़ाम को पलटकर रख देती है, फिर क्या अपराध और क्या अपराधी? हम अगर चाहें तो ऐसी घटनाओं को नज़रंदाज न करते हुए जागरूकता से काम लें. किसी छेड़खानी को कम से कम अब तो हल्के में न लें और समाज में अपनी जिम्मेदारी समझते हुए औरों को तो गलत काम से रोकें ही अपनों के द्वारा किये जाने वाले ऐसे कुत्सित प्रयासों को हतोत्साहित करें.


बच्चे जो ऐसी घटनाओं का विरोध करने में अक्षम हैं, उनके प्रति सर्वप्रथम उनके अभिभावकों का ही यह कर्तव्य है कि वे बच्चों को अनजानों के प्रति सतर्क करें और समझाएं कि वे किसी भी अनजानी जगह या अनजाने व्यक्ति की ओर आकर्षित न हों. वे अपने बच्चों को वह समझ दें कि बच्चे अपने मन की हर बात उनसे कर सकें. हर दुःख-दर्द उनसे बाँट सकें न कि उनसे ही सहमे रहें. क्योंकि कोई भी घटना एक बार में ही नहीं हो जाती. अगर बच्चे को माँ-बाप से ऐसी समझ मिली होगी, तो अपराध तैयारी नहीं तो कम से कम उसके प्रयास के समय पर अवश्य रोक दिया जायेगा.


सरकार की, पुलिस की, कानून की जिम्मेदारी बनती है. ये अगर चुस्त-दुरुस्त हों, कड़े हों, तो ऐसे अपराध करने से पहले अपराधी सौ बार सोचेगा, किन्तु यदि जनता ही ऐसे मामलों में आक्रामक हो, जागरूक हो तो अपराधी ऐसे अपराध करने की एक बार तो क्या हज़ार बार भी नहीं सोचेगा. हमें जागने की ज़रूरत है और अपनी जिम्मेदारी समझने की. कवि श्रेष्ठ दुष्यंत कुमार ने भी कहा है-


”हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए,
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए.”

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