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… तभी कमबख्त ससुराली

! मेरी अभिव्यक्ति !
! मेरी अभिव्यक्ति !
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थी कातिल में कहाँ हिम्मत, मुझे वो क़त्ल कर देता,

अगर मैं अपने हाथों से, न खंजर उसको दे देता.

वो बढ़ जाए भले आगे, लिए तलवार हाथों में,

मिले न जिस्म मेरा ये, क़त्ल वो किसको कर लेता.

बढ़ाते हैं हमीं साहस, जुर्म करने का मुजरिम में,

क्या नटवर लाल सबके घर, तिजोरी साफ़ कर लेता.

जला देते हैं बहुओं को, तभी कमबख्त ससुराली,

बेचारी बेटियों का जब, मायका साथ न देता.

कहीं गुंडे नहीं पलते, न गुंडागर्दी चलती है,

समझकर ”शालिनी” को जब, ज़माना साथ है देता.

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