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बेटी को इंसाफ- मरने से पहले या मरने के बाद?

! मेरी अभिव्यक्ति !
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‘वकील साहब… कुछ करो, हम तो लुट गए, पैसे-पैसे को मोहताज़ हो गए। हमारी बेटी को मारकर वो तो बरी हो गए और हम तारीख दर तारीख अदालत के सामने गुहार लगाने के बावजूद कुछ नहीं कर पाए। क्या वकील साहब अब कहीं इंसाफ नहीं है?’

dehaj

रोते-रोते उसने मेरे सामने अपनी बहन की दहेज़ हत्या के मामले में अदालत के निर्णय पर नाखुशी ज़ाहिर करते हुए फूट-फूटकर रोना आरम्भ कर दिया। मैंने मामले के एक-एक बिंदु के बारे में उससे समझा-बुझाकर जानने की कोशिश की। किसी तरह उसने अपनी बहन की शादी से लेकर दहेज़-हत्या तक, फिर अदालत में चली सारी कार्यवाही के बारे में बताया। वह बहन के पति व ससुर को, पुलिसवालों को, अपने वकील को और निर्णय देने वाले न्यायाधीश को कुछ न कुछ कहे जा रहा था और रोये जा रहा था। मुझे गुस्सा आ रहा था उसकी बेबसी पर, जो उसने खुद ओढ़ रखी थी।

जो भी उसने बताया, उसके अनुसार उसकी बहन को पति व ससुर ने कई बार प्रताड़ित कर घर से निकाल दिया था। तब ये उसे उसकी विनती पर घर ले आये थे। फिर बार-बार पंचायतें कर उसे वापस ससुराल भेजा जाता रहा और उसका परिणाम यह रहा कि एक दिन वही हो गया जिसका सामना आज तक बहुत सी बेटियों-बहनों को करना पड़ा है या करना पड़ रहा है।

‘दहेज़ हत्या’ कोई एक दिन में ही नहीं हो जाती। उससे पहले कई दिनों, हफ्तों, महीनों, तो कभी वर्षों की प्रताड़ना लड़की को झेलनी पड़ती है और बार-बार लड़के वालों की मांगों का कटोरा उसके हाथों में देकर ससुराल वालों द्वारा उसे मायके के द्वार पर टरका दिया जाता है। जैसे वह कोई भिखारन हो और मायके वालों द्वारा, जिनकी गोद में वो खेल-कूदकर बड़ी हुई है, जिनसे यदि अपना पालन-पोषण कराया है तो उनकी अपनी हिम्मत से बढ़कर सेवा-सुश्रुषा भी की है, भी कोई प्यार-स्नेह का व्यव्हार उसके साथ नहीं किया जाता। समाज के विवाह की अनिवार्यता के नियम का पालन करते हुए जैसे-तैसे बेटी का ब्याह कर उसके अधिकांश मायके वाले उसके विवाह पर उसकी समस्त ज़िम्मेदारियों से मुक्ति मान लेते हैं। ऐसे में अगर उसके ससुराल वाले, जो उन मायके वालों ने ही चुने हैं न कि उनकी बेटी ने, अपनी कोई अनाप-शनाप मांग रखकर उनकी बेटी को ही उनके घर भेज देते हैं, तो वह उनके लिए एक आपदा सामान हो जाती है। फिर वे उससे मुक्ति का नया हथियार उठाते हैं और ससुराल वालों की मांग कभी थोड़ी तो कभी पूरी मान ‘कुत्ते के मुंह में खून लगाने के समान’ अपनी बेटी को फिर बलि का बकरा बनाकर वहीं धकिया देते हैं।
वैसे, जैसे-जैसे हमारा समाज विकास कर रहा है, कुछ परिवर्तन तो आया है। किन्तु इसका बेटी को फायदा अभी नज़र नहीं आ रहा है। क्योंकि मायके वालों में थोड़ी हिम्मत तो अब आयी है। उन्होंने अब बेटी पर ससुराल में हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठानी तो अब शुरू की है, जबकि पहले बेटी को उसकी ससुराल में परेशान होते हुए जानकर भी वे इसे बेटी की और घर की बदनामी के रूप में ही लेते थे व चुपचाप बेटी को ससुरालियों की प्रताड़ना सहने को मजबूर करते थे। इस तरह अनजाने में बेटी को मारने में उसके ससुरालियों का सहयोग ही करते थे। कर तो आज भी वैसे वही रहे हैं, बस आज थोड़ा बदलाव है। अब लड़की वालों और ससुरालवालों के बीच में कहीं पंचायतें हैं, तो कहीं मध्यस्थ हैं। हालांकि दोनों का लक्ष्य वही, लड़की को परिस्थिति से समझौता करने को मजबूर करना और उसे उस ससुराल में मिल-जुलकर रहने को विवश करना, जहां केवल उसका खून चूसने-निचोड़ने के लिए ही पति, सास, ससुर, ननद, देवर बैठे हैं।

आज इसी का परिणाम है, जो लड़की थोड़ी सी भी अपने दम पर समाज में खड़ी है, वह शादी से बच रही है। क्योंकि घुटने को वो, मरने को वो, सबका करने को वो और उसको अगर कुछ हो जाए, तो कोई नहीं। न मायका उसका, न ससुराल। ससुरालियों को बहू के नाम पर केवल दौलत प्यारी और मायके वालों को बेटी के नाम पर केवल इज्‍जत प्यारी। ससुराल वाले तो पैसे के नाम पर उसे उसके मायके धकिया देंगे और मायके वाले उसे मरने को ससुराल। कोई उसे रखने को तैयार नहीं, जबकि कहने को ‘नारी हीन घर भूतों का डेरा, यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ ऐसे पवित्र वाक्‍यों को सभी जानते हैं। किन्तु केवल परीक्षाओं में लिखने और भाषणों में बोलने के लिए। अपने जीवन में अपनाने के लिए नहीं।
बेटी को अगर ससुराल में कुछ हो जाए, तो उसके मायके वाले दूसरों को ही कोसते हैं, जो बहुत आसान है। क्योंकि नहीं झांकते अपने गिरेबां में जो उनकी असलियत को उनके सामने एक पल में रख देगा। भला कोई बताए पति हो, सास हो, ससुर हो, ननद, देवर, जेठ, पुलिस, वकील, जज, कौन हैं ये आपकी बेटी के? जब आप ही अपनी बेटी को आग में झोंक रहे हैं, तो इन गैरों पर ऐसा करते क्या फर्क पड़ता है? पहले खुद तो बेटी-बहन के प्रति इंसाफ करो, तभी दूसरों से इंसाफ की दरकार करो।

शादी करना अच्छी बात है, लेकिन अगर बेटी की कोई गलती न होने पर भी ससुराल वाले उसके साथ अमानवीय बर्ताव करते हैं, तो उसका मायका तो उससे दूर नहीं होना चाहिए। कम से कम बेटी को ऐसा तो नहीं लगना चाहिए कि उसका इस दुनिया में कोई भी नहीं है। केवल दहेज़ हत्या हो जाने के बाद न्यायालय की शरण में जाना, तो एक मजबूरी है। कानून ने आज बेटी को बहुत से अधिकार दिए हैं, लेकिन उनका साथ वो पूरे मन से तभी ले सकती हैं, जब उसके अपने उसके साथ हों। अब ऐसे में बाप-भाई को ये तो सोचना ही पड़ेगा कि इन्साफ की ज़रूरत बेटी को कब है, मरने से पहले या मरने के बाद?

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