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राज्यपाल को नितीश को बिहार सौंपने की पूरी शक्ति .

! मेरी अभिव्यक्ति !
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पीएम से मिलकर बोले मांझी, ‘मैं ही हूं बिहार का सीएम’

कहा, 20 तारीख को साबित कर देंगे बहुमत

संविधान की अनुसूची ६ के अनुच्छेद ९ [२] तथा अनुच्छेद ३७१ अ [१] [बी] और [डी] और २ [बी] और [ऍफ़] अनुच्छेद २३९ के अधीन राज्यपाल को अपने स्वविवेक का प्रयोग करने का स्पष्ट उल्लेख है .सामान्यतया वह एक संविधानिक प्रधान की हैसियत से मंत्रिपरिषद के परामर्शनुसार कार्य करेगा किन्तु ऐसी परिस्थितियों में वह संविधानिक एवं प्रभावी रूप से अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है जहाँ पर मंत्रिपरिषद तथा उसके बीच किसी मामले पर मतभेद उठ खड़ा हुआ हो .इसबात में उसका निर्णय अंतिम होना इस बात का द्द्योतक है कि राज्यपाल उन विषयों पर मंत्रिपरिषद की राय के बिना परिस्थितियों के अनुसार अपना विवेक से कार्य कर सकता है , भले ही उनका संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लेख न किया गया हो .ऐसी परिस्थितियां जिनमे राज्यपाल अपनी वैवेकिक शक्ति का प्रयोग कर सकता है , निम्नलिखित हैं –

[१] मुख्यमंत्री की नियुक्ति

[२] मंत्री को अपदस्थ करना

[३] विधान सभा को भंग करना

[४] अनुच्छेद ३५६ के अंतर्गत राष्ट्रपति को संकटकालीन स्थिति की घोषणा की सिफारिश करना .

ऐसे ही अनुच्छेद १७४ के अनुसार राज्यपाल विधान सभा को आहूत भी करता है तथा उसे भंग भी करता है .सामान्य परिस्थितियों में राज्यपाल विधान सभा को तब तक भंग नहीं करता जब तक कि उसकी सामान्य अवधि [५ वर्ष ]समाप्त न हो जाये किन्तु जहाँ पर मंत्रिमंडल सदन का विश्वास खो चूका है और किसी स्थायी वैकल्पिक मंत्रिमंडल की स्थापना संभव नहीं है तो वह सदन को विघटित कर देगा .क्या राज्यपाल पराजित मंत्रिमंडल की विधान सभा भंग की सिफारिश को मानने के लिए बाध्य है ऐसे में यही बात सामने आती है कि वह ऐसी मंत्रणा को मानने के लिए बाध्य नहीं है वह अपने विवेक के अनुसार कार्य करने के लिए स्वतंत्र है .एक मत यह है कि राज्यपाल सर्वदा पराजित मुख्यमंत्री की सलाह को मानने के लिए बाध्य है और उसे राज्य विधानसभा को भंग करना ही पड़ेगा -दूसरा मत यह है कि यदि वह चाहे तो विधान सभा को विघटित करे या ऐसे व्यक्ति की खोज करे जो प्रदेश में पराजित मंत्रिपरिषद के स्थान पर वैकल्पिक मंत्रिमंडल का संगठन कर सके .भारत में संविधानशास्त्रियों का समर्थन दूसरे मत के पक्ष में है .सन १९५३ में त्रावणकोर-कोचीन में पराजित मंत्रिमंडल ने सदन को भंग करने का परामर्श राज्यपाल को दिया था ;किन्तु राज्यपाल ने उस परामर्श को स्वीकार नहीं किया .इससे स्पष्ट है कि राज्यपाल ऐसी स्थितियों में अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है .

अब एक तरफ तो मांझी का मंत्रिमंडल उन्हें विधान सभा भंग की सिफारिश करने को अधिकृत कर रहा है और एक तरफ वे २० तारीख को विश्वास मत साबित करने की बात कर रहे हैं जबकि जिस दल से वे ताल्लुक रखते हैं वह दल ही अब नितीश कुमार को विधायक दल का नेता चुन चुका है और मांझी का मुख्यमंत्री पद अब यदि संविधानिक रूप से देखा जाये तो जद [यू] के प्रसादपर्यन्त ही रह गया है क्योंकि इसी दल के बहुमत के आधार पर वे बिहार के मुख्यमंत्री बने हुए थे और जहाँ तक मांझी के दावों का सवाल है वे इसीलिए खोखले नज़र आ रहे हैं क्योंकि सन १९९५ में जब मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की सरकार से मुख्य घटक दल बसपा ने समर्थन वापस लिया तब राज्यपाल ने उन्हें बहुमत साबित करने का मौका न देकर उनकी सरकार को बर्खास्त किया था और मायावती को सरकार बनाने का निमंत्रण, ऐसे में अब जद [यू] में यदि मतभेद उभरे हैं और वह राज्यपाल  को मांझी को हटाने सम्बन्धी पत्र  देकर नितीश को विधायक दल का नेता चुने जाने सम्बन्धी पत्र  देती है तो मांझी का दावा बेकार हो जायेगा जो कि वैसे भी बेकार होने लग रहा है क्योंकि अभी अभी प्राप्त समाचारों के अनुसार नितीश कुमार को बिहार विधानसभा के स्पीकर ने भी जद[यु ] के विधायक दल का नेता स्वीकार किया है .

साथ ही यहाँ राज्यपाल का विवेक उन्हें राज्य में लोकतान्त्रिक सरकार बनाये रखने का एक मजबूत आधार नितीश के दावे के रूप में दे रही है जिसे स्वीकार करते हुए राज्यपाल को मांझी को हटाते हुए नितीश को सरकार बनाने का निमंत्रण देने में अपने विवेक का प्रयोग करने में तनिक भी विलम्ब नहीं करने की संवैधानिक शक्ति भी मिल रही है .

शालिनी कौशिक

[कानूनी ज्ञान ]

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