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उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण के लिए संसद ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम १९८६ पारित किया है .इस अधिनियम के अंतर्गत स्थापित निकाय अर्ध न्यायिक हैं और इनमे उपचार पाने की प्रक्रिया बहुत सरल व् कम खर्चीली है .इनमे वकील करने की भी आवश्यकता नहीं है .उपभोक्ता व्यक्तिगत रूप से अपना परिवाद प्रस्तुत कर सकता है .यहाँ कोर्ट फीस भी नहीं लगती है .इस अधिनियम के कार्यान्वयन के लिए २० लाख तक के मामले जिला स्तर के उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग में ,२० लाख से ऊपर व् एक करोड़ से नीचे के मामले राज्य आयोग में व् एक करोड़ से ऊपर के मामले राष्ट्रीय आयोग में विचारित किये जाते हैं .
इस सबके बावजूद एक सबसे बड़ी कमी जो इस कानून को बनाते समय संसद ने की है वह यह है कि इसमें उपभोक्ता को अपने हितों के लिए सबसे निचली कोर्ट जिला स्तर पर उपलब्ध है और जिसमे आवेदन करने पर उपभोक्ता की दैनिक जीवन चर्या और यात्रा का कष्ट और व्यय उसे इन न्यायालयों में अपनी समस्या के लिए आवेदन करने से एक हद तक रोक देता है और वह हानि सहन कर आगे की परेशानी सोच मन मारकर घर ही बैठ जाता है और यही इस कानून की सफलता में सबसे बड़ी बाधा है .संसद को जिला पीठ से नीचे तहसील स्तर पर भी एक ऐसी पीठ की स्थापना करनी चाहिए जो उपभोक्ता को उसके निकट पहुंचकर न्याय दिलाये .उसकी ऐसे वादों को ग्रहण करने की अधिकारिता पांच लाख से नीचे के मामलों में रखी जा सकती है और इस तरह उपभोक्ता के हितों की रक्षा उसके द्वार पर ही पहुंचकर की जा सकती है .
शालिनी कौशिक
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