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केंद्र की तरह राज्यों में प्रशासन का स्वरुप संसदात्मक है .कार्यपालिका का प्रधान एक संवैधानिक प्रधान होता है जिसे मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना होता है .भारतीय संविधान के अनुच्छेद १५३ में राज्यपाल के पद का उपबंध किया गया है जिसके अनुसार प्रत्येक राज्य में एक राज्यपाल होगा .दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक ही राज्यपाल हो सकता है .यही नहीं अनुच्छेद १५६ में राज्यपाल की पदावधि के विषय में भी उपबंध किया गया है और जिसमे साफ तौर पर कहा गया है कि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यन्त अपना पद धारण करेगा .सामान्य रूप से राज्यपाल का कार्यकाल ५ वर्ष होता है किन्तु राष्ट्रपति किसी भी समय राज्यपाल को उसके पद से हटा सकता है और इस मामले में राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल के परामर्श के अनुसार कार्य करता है क्योंकि उसकी नियुक्ति न तो प्रत्यक्ष मतदान के माध्यम से होती है और न विशेष रूप से राष्ट्रपति के लिए गठित निर्वाचक मंडल द्वारा ,जो अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति का निर्वाचन करता है .यह केंद्र सरकार द्वारा नामांकित व्यक्ति होता है और सभी जानते हैं कि अनुच्छेद ५२ में भारत के राष्ट्रपति के सम्बन्ध में जो उपबंध है उससे ही साफ है कि वह मात्र नाममात्र का ही प्रधान होता है ,वह संवैधानिक अध्यक्ष होता है किन्तु वास्तविक शक्ति केंद्रीय मंत्रिपरिषद में निहित है जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होता है और संविधान में अनुच्छेद ५३ में संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित की गयी है लेकिन अनुच्छेद ७४ में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि वह इसका प्रयोग मंत्रिपरिषद की सहायता व् मंत्रणा से ही करेगा .
ऐसे में ,राज्यपाल की नियुक्ति का अधिकार वर्तमान केंद्रीय सरकार के हाथ में है और इसे ही निभाने की परंपरा रही है ऐसे में इस मुद्दे पर व्यर्थ विवाद न खड़े करते हुए वर्तमान जिन राज्यपालों पर इस्तीफे की तलवार लटक रही है उसे उन्हें अपने ऊपर से स्वयं ही हटा देना चाहिए और अपना आत्मसम्मान बरकरार रखने के लिए उत्तर-प्रदेश के राज्यपाल बनवारी लाल जोशी जी का ही अनुसरण करते हुए संविधान के प्रति अपनी निष्ठां को न केवल बाहरी रूप से अपितु अपने अंतर्मन द्वारा भी प्रदर्शित करना चाहिए .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
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