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….. समझ न पायेंगें .

! मेरी अभिव्यक्ति !
! मेरी अभिव्यक्ति !
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ज़ुदा-ज़ुदा से हुए फिर रहे थे आज तलक

मेहरबाँ हो गए कैसे समझ न पायेंगें ,

भरोसा करके यूँ बैठे हमारी सूरत का

ज़माने में कभी भी हम समझ न पायेंगें .

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हमारे चेहरे से नफरत तुम्हें थी आज तलक

करीब क्यूँ हुए इतने समझ न पायेंगें ,

हमारे बोल लबों पर सजाये फिरते हो

हुए हो हम पे नरम क्यूँ  समझ न पायेंगें .

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मिली हमें है जो मंज़िल तुम्हारी चाहत थी

हो तब भी ऐसे में खुश तुम समझ न पायेंगें .

सहारे के सभी ज़रिये तुम्हारे छीने हैं

बने क्यूँ फिर रहे मेरे समझ न पायेंगें .

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फरेबी कहते थे मुझको दबी ज़ुबान से तुम

क्यूँ कर रहे वाह-वाह समझ न पाएंगे ,

खफा थे सामने भी तुम खफा थे पीछे भी

बदले क्यूँ ख़यालात समझ न पायेंगें .

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सियासत ने यूँ बदले हैं तुम्हारे हाव-भाव सारे

क्यूँ काटें बदले फूलों में समझ न पायेंगें ,

खोले इस कदर परतें तुम्हारी खुल के ‘शालिनी ‘

इसे हम अब यहाँ कैसे समझ न पाएंगे .

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शालिनी कौशिक

[कौशल ]

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