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सरज़मीन नीलाम करा रहे हैं ये
सरफ़रोश बन दिखा रहे हैं ये ,
सरसब्ज़ मुल्क के बनने को सरबराह
सरगोशी खुले आम किये जा रहे हैं ये .
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मैकश हैं गफलती में जिए जा रहे हैं ये
तसल्ली तमाशाइयों से पा रहे हैं ये ,
अवाम के जज़्बात की मज़हब से नज़दीकी
जरिया सियासी राह का बना रहे हैं ये .
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ईमान में लेकर फरेब आ रहे हैं ये
मज़हब को सियासत में रँगे जा रहे हैं ये ,
वक़्त इंतखाब का अब आ रहा करीब
वोटें बनाने हमको चले आ रहे हैं ये .
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बेइंतहां आज़ादी यहाँ पा रहे हैं ये
इज़हार-ए-ख्यालात किये जा रहे हैं ये ,
ज़मीन अपने पैरों के नीचे खिसक रही
फिकरे मुख़ालिफ़ों पे कैसे जा रहे हैं ये .
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फिरका-परस्त ताकतें उकसा रहे हैं ये
फिरंगी दुश्मनों से मिले जा रहे हैं ये ,
कुर्बानियां जो दे रहे हैं मुल्क की खातिर
उन्हीं को दाग-ए-मुल्क कहे जा रहे हैं ये .
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इम्तिहान-ए-तहम्मुल लिए जा रहे हैं ये
तहज़ीब तार-तार किये जा रहे हैं ये ,
खौफ का जरिया बनी हैं इनकी खिदमतें
मर्दानगी कत्लेआम से दिखा रहे हैं ये .
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मज़रूह ज़म्हूरियत किये जा रहे हैं ये
मखौल मज़हबों का किये जा रहे हैं ये ,
मज़म्मत करे ‘शालिनी ‘अब इनकी खुलेआम
बेख़ौफ़ सबका खून पिए जा रहे हैं ये .
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शब्दार्थ-सरसब्ज़-हरा-भरा ,सरबराह-प्रबंधक ,मैकश-नशे में ,गफलती-भूल में ,इंतखाब-चुनाव ,फिकरे-छलभरी बात ,तहम्मुल-सहनशीलता ,मज़रूह-घायल ,ज़म्हूरियत-लोकतंत्र ,सरगोशी -कानाफूसी-चुगली,
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शालिनी कौशिक
[कौशल ]
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