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हैं ये इकबाल नारी का ,इन्हीं की इज्ज़त है नारी ,
हुकूमत इनकी चलती है गुलामी करती है नारी .
इल्लत पालते हैं ये ,ईमान इनका न कोई ,
उल्फत करते फिरते ये ,होती बदनाम है नारी .
गुरूर करते हैं खुद पर ,ज़हीन खुद को ही मानें ,
नाज़ रखें ये नाजायज़ ,निभाती उनको है नारी .
ख्याली पुलाव ही खाएं ,ख्वाबी महल बनवाएं ,
समझदारी दिमागों में अगर भर पाए न नारी .
खोखली इनकी जिंदगी, भूतिया घर या हवेली ,
अँधेरे जीवन में इनके चांदनी लाये है नारी .
सदा गर्मी दिखाकर ही करें औरत को ये खामोश ,
अक्ल में इनसे ऊपर जो,खटकती है वो हर नारी .
न बदलें चाल-ढाल अपनी ,लिबास अपने न देखें ,
है तुर्रा उस पर ये देखो ,साँस भी पूछ ले नारी .
खुदी में रब हैं ये बनते ,खुदी बन जाएँ ये भरतार ,
”शालिनी ”ही न अकेली भुगतती इनको हर नारी .
शब्दार्थ.-इकबाल-सौभाग्य ,ईमान-नीयत ,ज़हीन-तीक्ष्ण बुद्धिवाला ,इल्लत-दुर्व्यसन ,तुर्रा-कोड़ा या चाबुक ,गर्मी दिखाकर-क्रोध दिखाकर ,नाजायज़-अनुचित ,नाज़-नखरा .
शालिनी कौशिक
[कौशल]
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