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ऐसी पढ़ी लिखी से तो अनपढ़ ही अच्छी लड़कियां
दैनिक जागरण के 13 जनवरी 2013 के”झंकार ”में दुर्गेश सिंह के साथ चित्रांगदा सिंह की बातचीत के अंश पढ़े , तरस आ गया चित्रांगदा की सोच पर ,जो कहती हैं –
” मुझे कुछ दिनों पहले ही एक प्रैस कांफ्रेंस में एक वरिष्ठ महिला पत्रकार मिली ,उन्होंने मुझसे कहा कि अपनी इस हालत के लिए महिलाएं ही जिम्मेदार हैं ,कौन कहता है उनसे छोटे कपडे पहनने के लिए ?मैं दंग रह गयी इतनी पढ़ी लिखी महिला की यह दलील सुनकर ………..”
दंग तो चित्रांगदा आपको ही नहीं सभी को होना होगा ये सोचकर कि क्या पढ़े लिखे होने का मतलब ये है कि शरीर को वस्त्र विहीन कर लिया जाये ?सदियों पहले मानव सभ्यता की शुरुआत में जैसे जैसे खोजकर कपड़ों का निर्माण आरम्भ हुआ और मानव ने अपने तन को वस्त्र से ढंकना आरम्भ किया नहीं तो उससे पहले तो मनुष्य नंगा ही घूमता था देखिये ऐसे –
और आज की लड़कियां अपने तन की नुमाइश कर आदि काल की ओर खिसकती जा रही हैं और समझ रही हैं खुद की अक्ल से खुद को आधुनिक .सही कपडे पहनकर कॉलिज आने वाली छात्राओं की हंसी स्वयं कपड़ों के लिए तरसती लड़कियों द्वारा उड़ाई जाती है और ”बहनजी”
कहकर उन्हें अपनी तरह बनाने का प्रयास किया जाता है .
यही नहीं लड़कियों में एक और प्रवर्ति भी है जो आज उनके शोषण के लिए जिम्मेदार कही जाएगी वह है ”उनका नकलची बन्दर होना ”
आज आधुनिक कहलाने की होड़ में लड़कियां अपने परंपरागत शोभनीय वस्त्रों का त्याग कर चुकी हैं और वे कपडे जो स्वयं लड़कों पर भी नहीं सुहाते उन्हें तक पहनने में संकोच नहीं कर रही हैं .लड़कों में आजकल ”हाफ पेंट ”का चलन है और इसे बहुत ही आधुनिक वेशभूषा के रूप में वे अपना रहे हैं यहाँ तक की जो कल तक धोती कुर्ते में गर्मी काट देते थे वे भी आज हाफ पेंट व् टी शर्ट में सड़कों को व् बहुत से अन्य सार्वजानिक स्थलों को बिगाड़ रहे हैं ये वेशभूषा जहाँ तक सही रूप में देखा जाये तो घर में काम करते समय नीचे कपड़ों के ख़राब होने की स्थिति में धारण करने की है या फिर कामगार मजदूर ही इस वेशभूषा को काम के लिए अपनाते हैं किन्तु लड़के इससे आधुनिक बन ही रहे हैं किन्तु चलिए वे तो अपने ही कपडे पहन रहे हैं किन्तु ये लड़कियां पागल हो रही हैं मॉडर्न बनने के लिए ये भी इसे पहन सड़कों का माहौल बिगाड़ रही हैं .सलवार सूट की जगह जींस शर्ट ने ले ली है .स्कर्ट की जगह हाफ पेंट ने .कोई इन्हें समझाए भी तो कैसे कि जब लड़के लड़कियों के कपडे सलवार सूट साड़ी पहनने को आकर्षित नहीं होते तो लड़कियां क्यों उनके कपड़ों को पहन गर्वित महसूस करती हैं ये तो वही बात हुई कि हम भारतीय अपनी भाषा हिंदी को तो गंवारू ,पिछड़ी कहते हैं और गुलामी करते हैं अंग्रेजी की .
ये हमारे यहाँ कि एक प्रसिद्ध लोकाक्ति है –
”खाओ मन भाया ,पहनो जग भाया.”
और ये बात सही भी है .आज लड़कियां लड़का बनने की कोशिश में लगी हैं क्या कपडे ही लड़की को लड़का बनायेंगी ?लड़कियों को लड़का बनने की ज़रूरत ही क्या है वे लड़की रहकर भी सब कुछ करने में सक्षम हैं
.कपडे कम करने से वे आधुनिक नहीं हो जाएँगी अपितु यदि उन्हें आधुनिक होना है तो ये होड़ छोडनी होगी लड़का बनने की कोशिश ही उनके दिमाग को दिवालिया बना रही है .
कपडे शरीर की शोभा होते हैं .तुलसीदास भी कह गए हैं –
”वसन हीन नहीं सोह सुरारी ,
सब भूषण भूषण बर नारी .”
मानव शरीर नग्न यदि सुन्दर लगा करता तो सभ्यता के विकास के साथ मानव वस्त्र कभी भी धारण नहीं करता और यदि पढ़े लिखे होने का मतलब शरीर से वस्त्र कम करना या सोच को नग्न करना है तो ये ही कहना होगा कि –
”ऐसी पढ़ी लिखी से तो लड़कियां अनपढ़ ही अच्छी .”
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
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