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बचपन को हम कहाँ ले जा रहे हैं ?
एक फ़िल्मी गाना इस ओर हम सभी का ध्यान आकर्षित करने हेतु पर्याप्त है –
”बच्चे मन के सच्चे सारे जग की आँख के तारे ,ये वो नन्हें फूल हैं जो भगवान को लगते प्यारे ,”
लेकिन शायद हम ये नहीं मानते क्योंकि आज जो कुछ भी हम बच्चों को दे रहे हैं वह कहीं से भी ये साबित नहीं करता एक ओर सरकार बालश्रम रोकने हेतु प्रयत्नशील है तो दूसरी ओर हम बच्चों को चोरी छिपे इसमें झोंकने में जुटे हैं.आप स्वयं आये दिन देखते हैं कि बाज़ारों में दुकानों पर ईमानदारी के नाम पर बच्चों को ही नौकर लगाने में दुकानदार तरजीह देते हैं .सड़कों पर ठेलियां ठेलते ,कबाड़ का सामान खरीदने के लिए आवाज़ लगते बच्चे ही नज़र आते हैं .
बच्चे अपने योन शोषण की शिकायत नहीं कर सकते इस लिए बच्चों का योन शोषण तेज़ी से बढ़ रहा है .अभी हाल में ही स्कूल बस ड्राइवर द्वारा नॉएडा में एक बच्ची के साथ ऐसे घटना प्रकाश में आई है और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो आये दिन समाचार पत्र इन घटनाओं से भरे पड़े हैं .
इसके साथ ही एक और दुखद पहलू है जो बच्चों को लेकर हमारे असंवेदनशील होने का परिचायक है और वह है विद्या के मंदिरों में बच्चों के साथ अमानवीय व्यवहार और वह भी बच्चों के लिए भगवान् का दर्जा रखने वाले शिक्षकों द्वारा .कितने ही स्कूलों से बच्चों के साथ ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आती रहती हैं कि एक बार को तो ये प्रतीत होता है कि ये वास्तव में बच्चें हैं या कोई अपराधी जिनके साथ शिक्षक ऐसा व्यवहार कर रहे हैं जिसे करने की इजाजत कानून अपराधियों के साथ भी नहीं देता .माँ बाप अपने बच्चों को विद्यालयों में पढने भेजते हैं किन्तु वहां इन मासूमों को पीट कर क्या ये शिक्षक अपने कार्य के साथ न्याय कर रहे हैं .ज्यादा पिटाई बच्चों को ढीठ बनाती है क्या वे यह नहीं जानते ?
बचपन हमारे देश की अमूल्य निधि है और ये हम सभी का कर्तव्य है कि हम इसकी राहें प्रशस्त करें न कि इसके लिए आगे बढ़ने के रास्ते बंद .
शालिनी कौशिक
[कौशल ]
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