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औलाद की कुर्बानियां न यूँ दी गयी होती .

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औलाद की कुर्बानियां न यूँ दी गयी होती .

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शबनम का क़तरा थी मासूम अबलखा ,

वहशी दरिन्दे के वो चंगुल में फंस गयी .

चाह थी मन में छू लूं आकाश मैं उड़कर ,

कट गए पर पिंजरे में उलझकर रह गयी .

थी अज़ीज़ सभी को घर की थी लाड़ली ,

अब्ज़ा की तरह पाला था माँ-बाप ने मिलकर .

आई थी आंधी समझ लिया तन-परवर उन्होंने ,

तहक़ीक में तबाह्कुन वो निकल गयी .

महफूज़ समझते थे वे अजीज़ी का फ़रदा ,

तवज्जह नहीं देते थे तजवीज़ बड़ों की .

जो कह गयी जा-ब-जा हमसे ये तवातुर ,

हर हवा साँस लेने के काबिल नहीं होती .


जिन हाथों में खेली थी वो अफुल्ल तन्वी ,

जिन आँखों ने देखी थी अक्स-ए-अबादानी .

खाली पड़े हैं हाथ अब बेजान से होकर ,

आँखें किन्ही अंजान अंधेरों में खो गयी .


नादानी ये माँ-बाप की बच्चे हैं भुगतते ,

बाज़ार-ए-जहाँ में यूँ करिश्मे नहीं होते .

न होती उन्हें तुन्द्ही छूने की फलक को ,

औलाद की कुर्बानियां न यूँ दी गयी होती .


शब्दार्थ -अबलखा-एक चिड़िया ,अज़ीज़ -प्रिय ,अब्ज़ा -लक्ष्मी सीपी मोती ,तन परवर -तन पोषक ,

तहकीक -असलियत ,तबाह्कुन -बर्बाद करने वाला ,अजीज़ी -प्यारी बेटी ,फ़रदा -आने वाला दिन ,

जा-ब-जा -जगह जगह ,तवातुर -निरंतर ,बाज़ार-ए-जहाँ -दुनिया का बाज़ार ,अक्स-ए-अबादानी-आबाद होने का चित्र ,

तन्वी-कोमल अंगो वाली ,अफुल्ल-अविकसित ,तुन्द्ही -जल्दी

शालिनी कौशिक

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